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आस्‍था और अंधविश्‍वास के बीच लकीर

अनुभूति
अनुभूति
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 इतिहास में उत्‍तर प्रदेश के गोरखपुर जनपद का चौरीचौरा काण्‍ड बहुत महत्‍वपूर्ण है। फरवरी 1922 में असहयोग आंदोलन कर रही जनता पर चौरीचौरा के तत्‍कालीन थानेदार गुप्‍तेश्‍वर सिंह ने लाठी चार्ज करवाया और फायरिंग में 260 लोग मारे गये। प्रतिशोध में आक्रोशित भीड ने थाना फूंक दिया जिसमें थानेदार और उसके परिवार समेत 23 लोग मारे गये। इस घटना के बाद महात्‍मा गांधी को असहयोग आंदोलन वापस लेना पडा। यह बात तो इतिहास के पन्‍नों में दर्ज है पर इसके पीछे की एक किवदंती को सिर्फ क्षेत्र जवार के लोग ही जानते हैं। आस्‍था से जुडी बातों पर वैज्ञानिक तर्क क्‍या होगा कह नहीं सकता लेकिन एक दिन खबरों के संकलन में जब मैं सोहगौरा गांव में गया तो राकेश राम त्रिपाठी ने मुझे मंदिर की महिमा बतायी। मेरे कदम गुरम्‍ही गांव की ओर मुडे। मंदिर के पुजारी विभूति गिरी से बात हुई तो उन्‍होंने गुरमेश्‍वर नाथ की महिमा और थानेदार द्वारा आस्‍था का उपहास उडाये जाने की बात कही। आस्‍था से जुडी इस ऐतिहासिक घटना पर मैने खबर लिखी। आज यह खबर प्रकाशित हुई तो मुझे आस पास के गांवों के बहुत से लोगों ने फोन किया। लोग कह रहे थे कि वाकई मंदिर की महिमा है। कभी ऐतिहासिक गांव सोहगौरा का अंग  रहे इस मंदिर को सोहगौरा गांव के लोग आकर्षक बनवा रहे हैं। कई राजनेताओं की भी आस्‍था इस मंदिर के प्रति है। मेरे इस लेख पर लोगों का नजरिया क्‍या होगा कह नहीं सकता, यह कह नहीं सकता कि कौन इसे अंधविश्‍वास करार दे, यह भी नहीं कह सकता कि आस्‍था और अंधविश्‍वास के बीच कौन सी लकीर बडी है, लेकिन इतना जरूर कह सकता  हूं कि मंदिर जाने पर मन को शांति मिलती है।
थानेदार को महंगा पड़ा आस्था का उपहास
आनन्द राय, गोरखपुर। कुछ हादसे इतिहास के पन्नों पर टिक जाते हैं। पर कुछ ऐसी भी घटनाएं होती हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों की जुबान पर चलती हैं। यह कहानी अंग्रेजी हुकूमत के बर्बर थानेदार गुप्तेश्र्वर सिंह की है जिसके चलते चौरीचौरा काण्ड की नींव पड़ी। उसका नाम इतिहास में काले अक्षरों में दर्ज है। राप्ती तीरे गुरमेश्र्वर नाथ मंदिर पर जाने के बाद यह बात पता चलती है कि उस थानेदार को आस्था का उपहास उड़ाना कितना महंगा पड़ा। कौड़ीराम से बायीं ओर लगभग छह किलोमीटर बाद राप्ती नदी के किनारे गुरम्ही गांव में गुरमेश्र्वर नाथ का मंदिर है। यह मंदिर दस बीस कोस के जवार में आस्था का केन्द्र है। इस आस्था की डोर अंग्रेजी हुकूमत से जुड़ी है। वाकया 1921 का है जब बांसगांव थाने पर थानेदार गुप्तेश्र्वर सिंह की तैनाती हुई। एक दिन गुप्तेश्र्वर अपने सिपाहियों के साथ गश्त करते गुरम्ही पहंुचा। गुरमेश्र्वरनाथ स्थान पर हरिशंकरी के एक विशाल वृक्ष के पास पिण्डी रखी थी। थानेदार ने अपना घोड़ा पेड़ की जड़ में बांध दिया तो गांव के कुछ लोगों ने आस्था का हवाला देकर उसे दूसरी जगह बांधने का अनुरोध किया। इतना सुनते ही थानेदार को ताव आ गया और उसने मजदूरों को बुलवाकर पिण्डी खुदवानी शुरू कर दी। मंदिर के पुजारी 84 साल के विभूति गिरी पूर्वजों से सुनी कहानी बताते हैं कि उस दिन रात तक फावड़ा चलता रहा मगर पिण्डी निकल नहीं पायी। थानेदार फिर दुबारा लौटकर आने की बात कह कर चला गया। पर उसके लौटने की नौबत नहीं आयी। थानेदार का तबादला चौरीचौरा थाने पर हो गया। उस समय महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन चरम पर था। उसके पहले 8 जनवरी 1921 को महात्मा गांधी गोरखपुर के बाले मियां के मैदान में एक विशाल सभा को सम्बोधित कर गये थे। असर यह था कि आये दिन प्रदर्शन हो रहे थे। 1 फरवरी 1922 को मुण्डेरा में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर चौरीचौरा के नये थानेदार गुप्तेश्र्वर सिंह ने लाठी चार्ज करा दी। प्रतिक्रिया में डुमरी में एक सभा हुई और एक जुलूस थाने की ओर चल पड़ा। इसी दौरान भगदड़ मच गयी और पुलिस ने गोलियां चलायी। तब 260 लोगों की मौत हो गयी। उत्तेजित जनता ने 4 फरवरी 1922 को प्रदर्शन करते हुये थाने में आग लगा दी। अंदर मौजूद सभी 23 पुलिसकर्मी जलकर खाक हो गये। गुप्तेश्र्वर सिंह परिवार समेत जलकर खाक हो गया। इसी के बाद गुरमेश्र्वर नाथ के प्रति लोगों की आस्था बढ़ने लगी। अब गुरम्ही गांव में गुरमेश्र्वर नाथ का एक भव्य मंदिर बन गया है। विभूति गिरी ने निर्माण की दिशा में कदम बढ़ाया तो इलाके के श्रद्धालु मंदिर के विकास में लग गये हैं। जैसे जैसे गुरमेश्र्वरनाथ मंदिर का स्वरूप भव्य हो रहा है वैसे वैसे गुप्तेश्र्वर सिंह के आस्था का उपहास उड़ाने की कहानी लोगों के जेहन में चस्पा होती जा रही है। अब पूरे जवार में यह कहानी लोगों की जुबान पर रहती है।
– यह खबर दैनिक जागरण गोरखपुर में चार फरवरी को पेज 6 पर छपी है।

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