पद्म भूषण पं. विद्या निवास मिश्र के गुजरे पांच साल बीत गये। मौके-बे-मौके उनकी बहुत याद आयी। अपनी कोमल भावनाओं के कारण सराहे गये पण्डित जी गोरखपुर के गांव-जवार से उठकर हिन्दी साहित्याकाश के देदीप्यमान नक्षत्र बन गये। इस दुनिया से वे भले ओझल हैं लेकिन उनकी कृति सबको आलोकित कर रही है। वे साहित्य और पत्रकारिता के बीच एक सेतु की तरह थे। रविवार को उनकी पांचवीं पुण्यतिथि है और कलम उनकी जय बोल रही है।
28 जनवरी 1925 को गोरखपुर जनपद के पकड़डीहा गांव में जन्मे पं. विद्यानिवास मिश्र ने मध्यप्रदेश के सूचना विभाग से लेकर वाशिंगटन विश्र्वविद्यालय और अमरीका के वर्कले विश्र्वविद्यालय में शब्दों की खेती की। पाणिनी के व्याकरण पर गोरखपुर विश्वविद्यालय से डाक्टरेट पं. जी को साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में 1996 में पद्म भूषण मिला। बाद में उन्हें राज्यसभा का सदस्य भी मनोनीत किया गया। सम्पूर्णानन्द विश्र्वविद्यालय के कुलपति और नवभारत टाइम्स के संपादक होने के साथ ही उन्होंने कई महत्वपूर्ण पदों को सुशोभित किया। 14 फरवरी 2005 को दोहरीघाट के पास मार्ग दुर्घटना में साहित्य के इस महाबली का अंत हो गया लेकिन हम न मरब मरिहौं संसारा की तरह वे अजर अमर हैं।
गांधी का करुण रस, कितने मोर्चे, चिडि़या रैन बसेरा, चितवन की छांह, फागुन दुई रे दिना, बसंत आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं, रहिमन पानी राखिये, भ्रमरानन्द का पचड़ा, कृति सपने कहां गये, थोड़ी सी जगह दें और भारतीय संस्कृति के आधार जैसी कृतियां उनके और पाठकों के बीच एक रिश्ता बनाये है। उनके ललित निबंधों की महक साहित्य जगत में बनी हुई है। दैनिक जागरण के एक समारोह में अपने निधन से कुछ समय पहले ही उन्होंने कहा था- पत्रकारिता तनी हुई रस्सी पर नट की तरह चलने का काम है। वे लोगों को सतत सावधान करते थे। पत्रकारों को सहयोग और सहकार के साथ संवेदनशील बनने की प्रेरणा देते थे। बिना पढ़ाई-लिखाई कैसी पत्रकारिता? उनका सबसे कठिन सवाल था। कागज की सिला पर अपनी कलम को चंदन की तरह घिसने वाले संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान विद्या निवास मिश्र का ललित निबंध प्रभु जी तुम चंदन हम पानी उनके निर्मल व्यक्तित्व का उदाहरण है।
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