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अपनी जड़ों से कभी जुदा नहीं हुये अज्ञेय

अनुभूति
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आनन्द राय, गोरखपुर

 सभी कुछ तो बना है, रहेगा / एक प्यार ही को क्या / नश्वर हम कहेंगे- इसलिए कि हम नहीं रहेंगे। यह रचना हिन्दी साहित्य के सबसे बड़े कर्मयोगी सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की है। इस चार अप्रैल को उनकी 23वीं पुण्यतिथि है और न होने के बाद भी विचारों, भावनाओं और किताबों में वे पूरी तरह मौजूद हैं। 7 मार्च 1911 को वे कुशीनगर में उस समय जन्में जिस समय खुदाई के दौरान भगवान बुद्ध की माथा कुंवर की प्रतिमा मिली। यह एक विलक्षण संयोग ही नहीं था, यह तो दो बड़ी आत्माओं का मिलन था। इसीलिए अज्ञेय अपनी जड़ों से कभी जुदा नहीं हुये।

 दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में हिन्दी के आचार्य चित्तरंजन मिश्र की स्मृतियों में अज्ञेय जी बसे हैं। बताते हैं कि अक्सर अज्ञेय जी अपने जन्मदिन पर कुशीनगर आने की कोशिश करते थे। पहले वे गोरखपुर ही आते थे। कभी उनका आना जगजाहिर होता और कभी आकर चुपचाप चले जाते। 1983-84 में जय जानकी जीवन यात्रा लेकर आये थे। कृतियों में राम-जानकी के लिए जिस पथ का उल्लेख है उसी पथ से उनकी यात्रा गुजरी। उनके साथ मकबूल फिदा हुसैन, शंकर दयाल सिंह, भगवती शरण मिश्र और लक्ष्मीकांत वर्मा जैसे लोग भी थे। अज्ञेय जी एक विलक्षण संस्कृति पुरुष थे। उनमें संस्कृति के सभी आयामों को जीने, जानने और समझने की गहरी बेचैनी थी। यही बेचैनी उनके शब्दों को जादुई बना देती।

दर्द का अथाह समंदर दिल में पाले हुये थे। उन्होंने लिखा- शायद! केवल इतना ही: जो दर्द है/ वह बड़ा है, मुझसे ही सहा नहीं गया/ तभी तो, जो अभी और रहा, वह कहा नहीं गया। अज्ञेय जी के बारे में लोग कहते हैं कि वे सभी 64 कलाएं जानते थे। हर कला पर उनका ऐसा अधिकार था कि किसी के सहारे जीवन यापन कर सकते थे। उन्होंने आजादी की लड़ाई की मशाल जलायी तो 1930 से 1936 तक विभिन्न जेलों में रह गये। छूटकर आये तो विशाल भारत और सैनिक जैसी पत्रिकाओं का संपादन करने लगे। 1943 से 1946 तक ब्रिटिश सेना में भी रहे। इलाहाबाद से प्रतीक पत्रिका निकाली। कैलीफोर्निया से लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय तक अध्यापन करते रहे। नवभारत टाइम्स और दिनमान जैसे पत्र पत्रिकाओं का संपादन कर उन्होंने अनगिनत प्रतिभाओं को एक मुकाम दिया। प्रयोगवाद एवं नयी कविता को साहित्य में प्रतिष्ठित किया। दस्तावेज के संपादक विश्वनाथ तिवारी उनके बहुत करीब रहे। कभी कभी तो वे जहाज से उतरकर चुपचाप तिवारी जी के घर पहंुच जाते और उन्हें देखकर तिवारी जी हतप्रभ रह जाते थे। अज्ञेय अब भी विश्वनाथ तिवारी के सपनों में आकर दरवाजा खटखटा देते हैं।

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